Top 10 battle in indian history :
भारतीय भूमि ने वैसै तो बहुत से युद्ध देखे हैं, लेकिन कुछ युद्ध ऐसे थे जिनकी छाप हमेशा के लिए बनी रहेगी क्योंकि इन युद्धों में सैन्य शक्ति नही बहादुरी काम आई। आइए बताते हैं ऐसे युद्धों के बारे में जिनमें वीरों ने असाधारण वीरता का परिचय दिया और इतिहास बना दिया।
1. Battle of Kalinga
कलिंग का युद्ध कब हुआ था?
कलिंग का प्रख्यात युद्ध सम्राट अशोक और कलिंग के शासक अनंत नाथन के बीच 261-262 ईसा पूर्व मे भुवनेश्वर से 8 किलोमीटर दक्षिण में दया नदी के किनारे लड़ा गया था। कलिंग उस समय ओडिशा, आन्ध्रकलिंग, छत्तीशगढ़, झारखण्ड और बंगाल और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में स्थित था।
कलिंग युद्ध का भारतीय इतिहास में क्या महत्व है?
भारतीय इतिहास में ऐसे कई युद्ध हुए हैं जिन्होंने इतिहास ही बदल डाला। ऐसा ही एक युद्ध था- कलिंग युद्ध। इसने भारतीय इतिहास के पूरे कालखंड को ही बदल कर रख दिया था। इस युद्ध को भारतीस इतिहास का भीषणतम युद्ध कहा जाता है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष (261 ई. पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था। कलिंग विजय उसकी आखिरी विजय थी। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ। कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धम्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
कलिंग का इतिहास:
- वर्तमान उड़ीसा राज्य प्राचीन काल में कलिंग के नाम से प्रसिद्ध था।
- कलिंग के एक लाख व्यक्ति मारे गए, डेढ़ लाख बंदी बनाए गए और इससे कहीं अधिक संख्या में, युद्ध से हुए विनाश के कारण, बाद में मर गए।
- इसी विनाश को देखकर अशोक युद्ध के बदले धर्म-विजय की ओर प्रवृत्त हुआ था।
- आगे की शताब्दियों में कलिंग ने अनेक परिवर्तन देखे। कभी खारवेल यहाँ के शासक बने तो कभी यह गुप्त साम्राज्य में मिला।
- 6वीं-7वीं शताब्दी में थोड़े समय के लिए यहाँ की सत्ता हर्षवर्धन के हाथों में भी रही।
कलिंग युद्ध के प्रमुख कारण:
- कलिंग पर विजय प्राप्त अशोक अपने साम्राज्य मे विस्तार करना चाहता था।
- सामरिक दृष्टि से देखा जाए तो भी कलिंग बहुत महत्वपूर्ण था। स्थल और समुद्र दोनो मार्गो से दक्षिण भारत को जाने वाले मार्गो पर कलिङ्ग का नियन्त्रण था।
- यहाँ से दक्षिण-पूर्वी देशो से आसानी से सम्बन्ध बनाए जा सकते थे।
2. Battle of Panipat
भारत में वैसे तो कई लड़ाईयां हुई लेकिन पानीपत की लड़ाई का जिक्र इतिहास में बहुत तरीकों से किया जाता रहा है। पानीपत की लड़ाई ऐसी थी जिसने भारत के इतिहास को बदलकर रख दिया था। दिल्ली के तख्त के लिए हुई पानीपत की लड़ाई के बारे में ऐसा कहते हैं कि इस लड़ाई में भारतीय राजाओं की जीत होती तो भारत में विदेशियों की सत्ता स्थापित नहीं होती।
कहां हुई थी पानीपत की लड़ाई :
यह सभी लोग जानते हैं कि महाभारत का युद्ध हरियाणा के कुरुक्षेत्र में हुआ था। पौराणिक कथा के अनुसार, पानीपत महाभारत के समय पांडव बंधुओं द्वारा स्थापित पांच शहरों में से एक था इसका ऐतिहासिक नाम पांडुप्रस्थ है। यही पांडुप्रस्थ आगे चलकर पानीपत हो गया जो हरियाणा में स्थित है। यहीं भारत की ऐतिहासिक लड़ाई हुई थी जिसने भारत का इतिहास बदल कर रख दिया। पानीपत वो स्थान है जहां बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत के नियंत्रण को लेकर कई निर्णायक लड़ाइयां लड़ी गयीं। वर्तमान हरियाणा में स्थित पानीपत दिल्ली से करीब 90 किलोमीटर दूर है।
किसके बीच हुई थी पानीपत की तीन लड़ाइयां?
पानीपत की पहली लड़ाई 21 अप्रैल 1526 को दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी और बाबर के बीच हुई थी। बाबर एक तुर्क था जिसने मुगल साम्राज्य की नींव रखी थी। इस लड़ाई में इब्राहिम हार गया था। इस लड़ाई में इब्राहिम लोदी और उनके 15,000 सैनिक मारे गए। इस लड़ाई ने भारत में बहलुल लोदी द्वारा स्थापित लोदी वंश को समाप्त कर दिया था और बाबर का दिल्ली एवं आगरा में दखल हो चला था।
पानीपत की दूसरी लड़ाई 5 नवंबर 1556 को अकबर और सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बीच हुई। इस लड़ाई में हेमचन्द्र ने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी और वह जीत की ओर बढ़ रहे थे लेकिन लड़ाई में एक मौके ऐसा आया जब मुगलों की सेना ने हेमचंद्र ऊर्फ हेमू की आंख में एक तीर मारा और वह गिरकर बेहोश हो गया यह घटना युद्ध में जीत रहे हेमू के हार का कारण बन गई। अपने राजा को इस अवस्था में देखकर सेना में भगदड़ मच गई जिसका फायदा उठाकर मुगल सेना ने कत्लेआम करना शुरू कर दिया। इस दृश्य को देखकर हेमू की सेना भाग गई जिसके चलते अकबर या बैरमखां ने हेमचंद्र का सिर काट दिया। इसके बाद अकबर का दिल्ली और आगरा पर कब्जा हो गया।
पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली और पुणे के सदाशिवराव भाऊ पेशवा के बीच लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सदाशिवराव भाऊ को हार का सामना करना पड़ा था। यह हार इतिहास मे मराठों की सबसे बुरी हार थी।
पानीपत के पहले युद्ध ने एक ओर जहां मुगल साम्राज्य की नींव स्थापित की थी वहीं दूसरे युद्ध ने अकबर के करीब पांच दशक लंबे शासन की नींव रखी। जबकि पानीपत की तीसरी लड़ाई ने भारत में अग्रेजों की विजय के रास्ते खोल दिए थे। मतलब यह कि पानीपत में यदि हेमचंद्र के साथ दुर्घटना नहीं हुई होती तो देश में मुगल साम्राज्य नहीं होता और अहमद शाह अब्दाली से सदाशिवराव भाऊ पेशवा जीत जाते तो अंग्रेजों की देश में एंट्री नहीं होती फिर भी मराठा और राजपूतों ने देश के एक बहुत बड़े भूभाग पर तब तक अपना कब्जा बरकरार रखा जब तक की अंग्रेजों ने संपूर्ण भारत में अपना शासन नहीं कर लिया।
3. Battle of Plassey
प्लासी का युद्ध (The Battle of Plassey) बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के संघर्ष का परिणाम था. इस युद्ध के अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा स्थाई परिणाम निकले. 1757 ई. में हुआ प्लासी का युद्ध ऐसा युद्ध था जिसने भारत में अंग्रेजों की सत्ता की स्थापना कर दी.
बंगाल की तत्कालीन स्थिति और अंग्रेजी स्वार्थ ने East India Company को बंगाल की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया. अलीवर्दी खां, जो पहले बिहार का नायब-निजाम था, ने औरंगजेब की मृत्यु के बाद आई राजनैतिक उठा-पटक का भरपूर लाभ उठाया. उसने अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली. वह एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था. उसने बंगाल के तत्कालीन नवाब सरफराज खां को युद्ध में हराकर मार डाला और स्वयं नवाब बन गया.9 अप्रैल को अलीवर्दी खां की मृत्यु हो गई. अलीवर्दी खां की अपनी कोई संतान नहीं थी इसलिए उसकी मृत्यु के बाद अगला नवाब कौन होगा, इसके लिए कुछ लोगों में उत्तराधिकार के लिए षड्यंत्र होने शुरू हो गए. पर अलीवर्दी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी सबसे छोटी बेटी के पुत्र सिराजुद्दौला को उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था. अंततः वही हुआ भी. सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना.
9 फ़रवरी, 1757 को क्लाइव ने नवाब के साथ एक संधि (अलीनगर संधि) की जिसके अनुसार मुग़ल सम्राट द्वारा अंग्रेजों को दी गई सारी सुविधायें वापस मिली जानी थीं. नवाब को लाचार होकर अंग्रेजों को सारी जब्त फैक्टरियाँ और संपत्तियाँ लौटाने के लिए बाध्य होना पड़ा. कम्पनी को नवाब की तरफ से हर्जाने की रकम भी मिली. नवाब अन्दर ही अन्दर बहुत अपमानित महसूस कर रहा था.अंग्रेज़ इस संधि से भी संतुष्ट नहीं हुए. वे सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाकर किसी वफादार नवाब को बिठाना चाहते थे जो उनके कहे अनुसार काम करे और उनके काम में रोड़ा न डाले. क्लाइव ने नवाब के खिलाफ षड्यंत्र करना शुरू कर दिया. उसने मीरजाफर (Mir Jafar) से एक गुप्त संधि की और उसे नवाब बनाने का लोभ दिया. इसके बदले में मीरजाफर ने अंग्रेजों को कासिम बाजार, ढाका और कलकत्ता की किलेबंदी करने, 1 करोड़ रुपये देने और उसकी सेना का व्यय सहन करने का आश्वासन दिया. इस षड्यंत्र में जगत सेठ, राय दुर्लभ और अमीचंद भी अंग्रेजों से जुड़ गए.
अब क्लाइव ने नवाब पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया. इस समय नवाब की स्थिति अत्यंत दयनीय थी. दरबारी-षड्यंत्र और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण से उत्पन्न खतरे की स्थिति ने उसे और भी भयभीत कर दिया. उसने मीरजाफर को अपनी तरफ करने की कोशिश भी की पर असफल रहा. नवाब की कमजोरी को भाँपकर क्लाइव ने सेना के साथ प्रस्थान किया. नवाब भी राजधानी छोड़कर आगे बढ़ा. 23 जून, 1757 को प्लासी के मैदान में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई. यह युद्ध नाममात्र का युद्ध था. नवाब की सेना के एक बड़े भाग ने युद्ध में हिस्सा नहीं लिया. आंतरिक कमजोरी के बावजूद सिराजुद्दौला की सेना, जिसका नेतृत्व मीरमदन और मोहनलाल कर रहे थे, ने अंग्रेजों की सेना का डट कर सामना किया. परन्तु मीरजाफर के विश्वासघात के कारण सिराजुद्दौला को हारना पड़ा. वह जान बचाकर भागा, परन्तु मीरजाफर के पुत्र मीरन ने उसे पकड़वा कर मार डाला.
4. Battle of Chamkaur
चमकौर का युद्ध- जहां 10 लाख मुग़ल सैनिकों पर भारी पड़े थे 40 सिक्ख। 22 दिसंबर सन् 1704 को सिरसा नदी के किनारे चमकौर नामक जगह पर सिक्खों और मुग़लों के बीच एक ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में "चमकौर का युद्ध" नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध में सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व में 40 सिक्खों का सामना वजीर खान के नेतृत्व वाले 10 लाख मुग़ल सैनिकों से हुआ था। वजीर खान किसी भी सूरत में गुरु गोविंद सिंह जी को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ना चाहता था क्योंकि औरंगजेब की लाख कोशिशों के बावजूद गुरु गोविंद सिंह मुग़लों की अधीनता स्वीकार नहीं कर रहे थे। लेकिन गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों सहित 40 सिक्खों ने गुरूजी के आशीर्वाद और अपनी वीरता से वजीर खान को अपने मंसूबो में कामयाब नहीं होने दिया और 10 लाख मुग़ल सैनिक भी गुरु गोविंद सिंह जी को नहीं पकड़ पाए। यह युद्ध इतिहास में सिक्खों की वीरता और उनकी अपने धर्म के प्रति आस्था के लिए जाना जाता है ।
5. Battle of Haldighati
राणा प्रताप द्वारा अकबर का आधिपत्य न स्वीकारने के कारण हुआ जिसमे राणा प्रताप ने बहादुरी से युध्द किया लेकिन अंततः परास्त हो गया. हल्दीघाटी का युद्ध मुग़ल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। अकबर और राणा के बीच यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से सन्धि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाईयाँ लड़ते रहे।
6. Battle of Tarain
तराइन की पहली लड़ाई (1191 AD)
पृथ्वीराज चौहान ने 1191 AD में दिल्ली के निकट तराइन की लड़ाई में गौरी को हरा दिया | इस हार का बदला लेने के लिए गौरी एक बड़ी सेना के साथ पेशावर और मुल्तान से होते हुए लाहौर आया और पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया | चौहान ने बड़ी सेना एकत्रित की जिसमे 3,00,000 घोड़े, 3000 हाथी और पैदल सैनिकों की बड़ी फौज थी, कई हिन्दु राजा और प्रमुख भी उनके साथ जुड़ गए |
तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 AD)
1192 AD में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज की सेना को बखूबी ढंग से पराजित किया | पृथ्वीराज को बंदी बना लिया और हत्या कर दी |
1206 में मुहम्मद गौरी की हत्या से पहले तुर्क ने गंगा यमुना दोआब और इसके पास के पड़ोसी क्षेत्रों बंगाल और बिहार को भी जीत लिया | तराइन की लड़ाई ने भारत के इतिहास में एक नए युग को जन्म दिया जैसे दास परंपरा की शुरुआत हुई
तराइन की लड़ाई के प्रभाव
• राजपूतों की राजनीतिक प्रतिष्ठा को झटका लगा |
• भारत में पहला मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई थी |
• मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि कुतब –उद-दीन ऐबक (1206-11) ने भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की |
• भारत के जोखिम को भांपते हुए दूसरे विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किया |
• भारत में पहला मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई थी |
• मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि कुतब –उद-दीन ऐबक (1206-11) ने भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की |
• भारत के जोखिम को भांपते हुए दूसरे विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किया |
7. Battle of Chausa
चौसा का युद्ध
हमायूँ का प्रबलतम शत्रु शेर खाँ था. बंगाल में विजय के बाद हुमायूँ निश्चिंत होकर आराम फरमाने लगा. बंगाल में हुमायूँ को आराम करता देख शेर खाँ ने क्रमशः चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज, पटना, इत्यादि पर अधिकार कर लिया. इन घटनाओं ने हुमायूँ को विचलित कर दिया. मलेरिया के प्रकोप से हुमायूँ की सेना कमजोर पड़ गयी थी इसलिए हुमायूँ ने सेना की एक छोटी से टुकड़ी छोड़कर आगरा के लिए कूच कर गया.
हमायूँ के वापस लौटने की सूचना पाकर शेर खाँ उर्फ़ शेरशाह ने मार्ग में ही हुमायूँ को घेरने का निश्चय किया. हुमायूँ ने वापसी में अनेक गलतियाँ कीं. सबसे पहले उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया था. सेना की एक टुकड़ी दिलावर खाँ के अधीन मुंगेर (बिहार) पर आक्रमण करने को भेजी गई थी. सेना की दूसरी टुकड़ी के साथ हुमायूँ खुद आगे बढ़ा. हुमायूँ के सैन्य सलाहकारों ने उसे सलाह दिया था कि वह गंगा के उत्तरी किनारे से चलता हुआ जौनपुर पहुँचे और गंगा पार कर के शेरशाह/शेरखाँ पर हमला करे परन्तु उसने उन लोगों की बात नहीं मानी. वह गंगा पार कर दक्षिण मार्ग से ग्रैंड ट्रंक रोड से चला. यह मार्ग शेर खाँ के नियंत्रण में था. कर्मनासा नदी (Karmanasa River, Uttar Pradesh) के किनारे चौसा (Chausa) नामक स्थान पर उसे शेरशाह के होने का पता चला. इसलिए वह नहीं पार कर शेरशाह पर आक्रमण करने को उतारू हो उठा, लेकिन यहाँ भी उसने लापरवाही बरती. उसने तत्काल शेर खाँ पर आक्रमण करने को उतारू हो उठा, लेकिन यहाँ भी उसने लापरवाही बरती. उसने तत्काल शेरशाह पर आक्रमण नहीं किया. वह तीन महीनों तक गंगा नदी के किनारे समय बरबाद करता रहा. शेर खाँ ने इस बीच उसे धोखे से शान्ति-वार्ता में उलझाए रखा और अपनी तैयारी करता रहा. वस्तुतः वह बरसात की प्रतीक्षा कर रहा था.
8. Battle of Kannauj
कन्नौज का युद्ध शेरशाह सूरी एवं बादशाह हुमायु के मध्य हुआ था| बादशाह हुमायूं को यह मालूम था की शेरशाह की सेना उसकी सेना के मुकाबले ज्यादा ताकतवर एवं शक्तिशाली है और शेरशाह को इस लड़ाई में पराजित करना आसान नहीं है, इसी कारण उसने अपने भाइयों को इस युद्ध में मिलाने का प्रयास किया परंतु उसके भाई इस युद्ध में उसके साथ सम्मिलित ना हुए बल्कि वह हुमायूं की युद्ध की तैयारियों में अनेक तरह से रुकावटें डालने लगे| शेरशाह एक कुशल शासक था और उसको यह ज्ञात हो गया था कि हुमायूं के भाई कन्नौज के युद्ध में उसका साथ नहीं देने वाले हैं जिससे वह बहुत ही प्रसन्न हुआ| जैसे ही शेरशाह को हुमायु के भाइयों के बारे मैं ज्ञात हुआ उसने अपनी सेना एवं अफगान साथियों के साथ हुमायूं पर आक्रमण करने का फैसला किया| हुमायु भी उसका सामना करने के लिए तैयार था| कन्नौज के युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाओं ने कन्नौज के पास ही गंगा के किनारे अपना अपना पड़ाव डाला| इतिहासकारों के मत के अनुसार दोनों सेनाओं की संख्या लगभग दो लाख थी, और दोनों सेनाएं लगभग एक महीने तक बिना युद्ध किए वहीं पर अपना पड़ाव डाले रही| शेरशाह को इस बात से कोई हानि नहीं थी परंतु हुमायूं की सेना के सिपाही धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ कर चले जा रहे थे, इसी कारणवश हुमायु ने कन्नौज के युद्ध को प्रारंभ करना ही उचित समझा| इस युद्ध में अफगानी सेना ने हुमायूं के सेना को बड़ी आसानी से पराजित कर दिया क्योंकि उसके सैनिक इस युद्ध में डटकर नहीं लड़े| अफगान सेना ने भागती हुई मुगल सेना को नदी की ओर पीछा किया और कई सैनिकों को मार गिराया जिससे उसकी बड़ी क्षति हुई, बहुत से मुगल सैनिक नदी में डूब गए| कन्नौज की लड़ाई ने मुगलों और शेरशाह सूरी के बीच मामले का फैसला कर दिया, इस युद्ध के बाद बादशाह हुमायूं बिना राज्य का राजा था, और काबुल तथा कंधार कामरान के हाथों में थे| कन्नौज के युद्ध के पश्चात ही हुमायूं को अपनी राजगद्दी छोड़कर भागना पड़ा और दिल्ली का राज्य शेरशाह सूरी के अधिकार में आ गया|
- कन्नौज के युद्ध को बिलग्राम का युद्ध (Bilgram ka yudh) भी कहा जाता
9. Battle of Chanderi
चंदेरी का युद्ध 1528 ई. में मुग़लों तथा राजपूतों के मध्य लड़ा गया था। खानवा युद्ध के पश्चात् राजपूतों की शक्ति पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थी, इसलिए बाबर ने चंदेरी का युद्ध शेष राजपूतों के खिलाफ लड़ा। इस युद्ध में राजपूतों की सेना का नेतृत्त्व मेदिनी राय ने किया। इस युद्ध में मेदिनी राय की पराजय हुई। युद्ध के पश्चात् मेदिनी राय ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली और महिलायों ने जौहर को स्वीकार करके सामूहिक आत्मदाह कर लिया।
बाबर द्वारा क़िले की माँग
कहा जाता है कि खानवा युद्ध में राजपूतों को हराने के बाद बाबर कि नजर अब चंदेरी पर थी। उसने चंदेरी के तत्कालीन राजपूत राजा से वहाँ का महत्वपूर्ण क़िला माँगा और बदले में अपने जीते हुए कई क़िलों में से कोई भी क़िला राजा को देने की पेशकश की। परन्तु राजा चंदेरी का क़िला देने के लिए राजी ना हुआ। तब बाबर ने क़िला युद्ध से जीतने की चेतावनी दी। चंदेरी का क़िला आसपास की पहाड़ियों से घिरा हुआ था। यह क़िला बाबर के लिए काफ़ी महत्व का था।
मुग़लों द्वारा पहाड़ी को काटना
बाबर की सेना में हाथी, तोपें और भारी हथियार थे, जिन्हें लेकर उन पहाड़ियों के पार जाना दुष्कर था और पहाड़ियों से नीचे उतरते ही चंदेरी के राजा की फौज का सामना हो जाता, इसलिए राजा आश्वस्त व निश्चिन्त था। कहा जाता है की बाबर अपने निश्चय पर दृढ़ था और उसने एक ही रात में अपनी सेना से पहाड़ी को काट डालने का अविश्वसनीय कार्य कर डाला। उसकी सेना ने एक ही रात में एक पहाड़ी को ऊपर से नीचे तक काटकर एक ऐसी दरार बना डाली, जिससे होकर उसकी पूरी सेना और साजो-सामान ठीक क़िले के सामने पहुँच गये।
10. Battle of India & Pakistan
1971 का साल भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में काफी अहमयित रखता है। उसी साल भारत ने पाकिस्तान को वह जख्म दिया था, जिसकी टीस पाकिस्तान को हमेशा महसूस होती रहेगी। बांग्लादेश की बात करें तो यह वही साल था, जब दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरा। 1971 के उस इतिहास बदलने वाले युद्ध की शुरुआत 3 दिसंबर, 1971 को हुई थी। आइए आज हम पाकिस्तान के दो टुकड़े और बांग्लादेश के अस्तित्व में आने की पूरी कहानी जानते हैं...
अक्टूबर-नवंबर, 1971 के महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने यूरोप और अमेरिका का दौरा किया। उन्होंने दुनिया के लीडरों के सामने भरत के नजरिये को रखा। लेकिन इंदिरा गांधी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के बीच बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। निक्सन ने मुजीबुर रहमान की रिहाई के लिए कुछ भी करने से हाथ खड़ा कर दिया। निक्सन चाहते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार को दो साल का समय दिया जाए। दूसरी ओर इंदिरा गांधी का कहना था कि पाकिस्तान में स्थिति विस्फोटक है। यह स्थिति तब तक सही नहीं हो सकती है जब तक मुजीब को रिहा न किया जाए और पूर्वी पाकिस्तान के निर्वाचित नेताओं से बातचीत न शुरू की जाए। उन्होंने निक्सन से यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान ने सीमा पार (भारत में) उकसावे की कार्रवाई जारी रखी तो भारत बदले कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा।
भारत पर हमला और युद्ध की शुरुआत
पूर्वी पाकिस्तान संकट विस्फोटक स्थिति तक पहुंच गया। पश्चिमी पाकिस्तान में बड़े-बड़े मार्च हुए और भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की मांग की गई। दूसरी तरफ भारतीय सैनिक पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर चौकसी बरते हुए थे। 23 नवंबर, 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान ने पाकिस्तानियों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की वायु सेना ने भारत पर हमला कर दिया। भारत के अमृतसर और आगरा समेत कई शहरों को निशाना बनाया। इसके साथ ही 1971 के भारत-पाक युद्ध की शुरुआत हो गई। 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की सेना के आत्मसमर्पण और बांग्लादेश के जन्म के साथ युद्ध का समापन हुआ।
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